प्रेम दीप घट-घट में जगाकर जन मन तिमिर मिटाएँ
बाती बुझ गई जो आशा की फिर से उसे जगाएँ
बिछड़ी सजनी को हम उसके साजन संग मिलाएँ
आओ ज्योति-पर्व मनाएँ
जगमग-जगमग दीप की माला ऐसा भाव जगाए
नभ मंडल के तारांगण ज्यों उतर धरा पर आए
भूला पथिक जो अपनी मंज़िल उसको राह दिखाएँ
आओ ज्योति-पर्व मनाएँ
उच्च विचारों के रंगो से कुटिया महल रंगाएँ
सुंदर संस्कारों के तोरण मन का द्वार लुभाएँ
कृपा लहे लक्ष्मी की सबको धन कुबेर बरसाएँ
आओ ज्योति-पर्व मनाएँ
शुभ रंगोली मधुर वचन की जग पावन कर जाए
कर्म ही पूजा और न दूजा सबको पाठ सिखाएँ
अपने शुभ संकल्पों से हम भारत स्वर्ग बनाएँ
आओ ज्योति-पर्व मनाएँ
प्रदीप जैन
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