महाराष्ट्र में सत्ता की छीना-झपटी और सियासी चालबाजियों के खेल में अंतत: भाजपा खेत रही और तीन पहियों वाला गठबंधन जीत गया।

इसके पहिए भी कब तक साबुत रहेंगे, कहना मुश्किल है। वहां महीने भर से जारी सत्ता के शतरंज में एक अघोषित स्पर्द्धा ‘चाणक्य’ का खिताब अपने नाम करने की थी।
जिसका फर्स्ट हाफ अमित शाह के खाते में गया तो ‘दि एंड’ शरद पवार के नाम रहा।
महाराष्ट्र जैसे प्रबुद्ध राज्य में पाॅवर का यह मेलो ड्रामा अपने भीतर कई प्रहसनो को समेटे था।
जिसमें एक तरफ संविधान, नैतिकता और आदर्शों का खुला चीरहरण हुआ तो दूसरी तरफ सियासी रिश्तों पर पारिवारिक रिश्ते भारी पड़े।
इस मायने में यह परिवारवाद की अखाड़ेबाजी भी थी, जिसमें अंतत: परिवारवाद ही जीता।

यह नेताअों की मगरूरी, प्रतिशोध और एक-दूसरे को नीचा दिखाने का एपीसोड भी था। उधर महाराष्ट्र के इस ‘महा ड्रामे’ पर सोशल मीडिया में दिलचस्प कमेंटों बाढ़ आई हुई थी तो नैतिकता के पिच पर इलेक्ट्राॅनिक मीडिया फिर एक बार बोल्ड हुआ।
संदेश यही गया कि पलटीमारी में वह नेताअों से भी दस कदम आगे है।
सोशल मीडिया में सबसे दिलचस्प कमेंट कवि, नेता, सेलेब्रिटी कुमार विश्वास का था। उन्होंने महाराष्ट्र के आईने में यूपी का अक्स देखा और कहा- हर चाचा शिवपाल नहीं होता अजीत बाबू…।
महाराष्ट्र में बीते तीन दिनो से सत्ता हथियाने का जो खेल चल रहा था, उसे पूरा देश हैरानी और दुख के साथ देख रहा था।
जिस ‘संविधान‍ दिवस’ पर इस खेल की पूर्णाहुति होती दिखी, वह गर्व से ज्यादा आत्मग्लानि का दिन साबित हुआ।
यही सिद्ध हुआ कि सत्ता पर काबिज होने के लिए कुछ भी करना नाजायज नहीं, दूसरे सत्ता मिले बिना नेताअों को स्वर्ग नहीं मिलता।
सोशल मीडिया इसी धड़कन और थ्रिल को अपने चश्मे से देख रहा था। जब देवेन्द्र फडणवीस ने रात में एनसीपी नेता अजित पवार के समर्थन से अचानक शनिवार सुबह शपथ ले ली तो सोशल मीडिया पर चाणक्य ट्रेंड करने लगा।

भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की तस्वीरों के मीम्स दिखने लगे- ‘जहां जीतते हैं, वहां सरकार बनाता हूं। जहां नहीं जीतते, वहां डेफिनेटली बनाता हूं।’
एक दिन पहले तक विधानसभा के पटल पर बहुमत साबित करने का छाती ठोक दावा करने और दूसरे ही दिन पद से इस्तीफा देने वाले मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस के साथ-साथ उन्हें आधी रात में सीएम बनवाने वाले राज्यपाल भगतसिंह कोश्यारी भी ट्रोल हुए।
देवेन्द्र फडणवीस को लोगों ने ‘मिड नाइट काउ ब्वाॅय’ कहा तो शिवसेना की ( दलबदलू) प्रवक्ता प्रियंका चतुवेदी ने ताना कसा ‘बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले।
गवर्नर कोश्यारी पर महात्मा गांधी के पड़पोते तुषार गांधी का तंज था मेरे करन-अर्जुन वापस आएंगे।
यहां करन-अर्जुन बोले तो देवेन्द्र फडणवीस और अजित पवार। पत्रकार राजदीप सरदेसाई का सवाल था कि क्या अब गवर्नर कोश्यारी भी इस्तीफा देंगे? ट्विटर पर अमित शाह को सांत्वना देने वाला एक कमेंट था ‘दिल छोटा मत कर, नेशनल चैम्पियन से हारा है तू।‘ कई रोचक मीम्स भी नजर आए।

मसलन ‘महाराष्ट्र में जनता की ‘सेवा’के करने के लिए इतनी ‘मारामारी’ देख कसम से आंखें भर आईं।
ईश्वर ऐसे नेता हर देश को दे।

महाराष्ट्र में जो घटा, उससे खानापूर्ति के लिए मुख्यमंत्री बनने वालों की सूची में एक एंट्री और बढ़ी।
देवेन्द्र फडणवीस अपने दूसरे कार्यकाल में कुल 80 घंटे यानी साढ़े 3 दिन ही सीएम की कुर्सी पर रह सके।
हालांकि यह रिकाॅर्ड अपने दूसरे कार्यकाल में मात्र 1 दिन मुख्यमंत्री रह पाने वाले अर्जुनसिंह से ज्यादा है।
यूपी में जगदम्बिका पाल दो दिन ही सत्ता सिंहासन पर बैठ पाए थे तो कर्नाटक में येद्दियुरप्पा अपने तीसरे कार्यकाल में ढाई दिन बाद ही मुख्यिमंत्री से सड़क पर आ गए थे।
राजनीति के पल-पल बदलते रंग के साथ देश ने मीडिया की कल्टी को भी खूब देखा।
जो टीवी चैनल कुछ घंटे पहले जिन अमित शाह को चाणक्य बताकर उनकी राजनीतिक कुटिलताअों की तारीफ करते नहीं अघा रहे थे वो नाटक के तीसरे दिन तीसरे प्रहर में चाचा शरद पवार की सियासी चालाकियों के कसीदे काढ़ने में एक-दूसरे को पीछे छोड़ते दिखे। यहां डर कब संयम में और धूर्तता कब लाचारी में तब्दील हो गई, समझना कठिन था।
लगा कि तकरीबन हर चैनल का रिमोट किसी अदृश्य हाथ में है और पत्रकारिता की नैतिकता किसी फांसी के फंदे से लटकी हुई है।
सूचनाअों ने कैम्पेन का रूप धर लिया है।
पुराख्यानो में माता पिता, पिता पुत्र पुत्री के अलावा जिस रिश्ते को तवज्जो दी गई है, वह मामा का रहा है, चाहे फिर वह कंस या शकुनि के रूप में ही क्यों न हो। लेकिन भारतीय राजनीति के इस युग में चाचा भतीजे के रिश्ते नए सिरे से रेखांकित हुए। शायद इसीलिए पार्टी के टूटने से ज्यादा गंभीर परिवार का टूटना माना गया। दो दिन तक अनमने बागी का रोल अदा करने वाले अजित पवार अपने चाचा की मार्मिक गुहार पर अपनी मूल पार्टी में लौट गए और देवेन्द्र फडणवीस सड़क पर आ गए। महाराष्ट्र का सत्ता संघर्ष भारतीय राजनीति की वह अवस्था है, जहां पार्टी और परिवार एकाकार होते दिखते हैं। उद्धव ठाकरे बेटे आदित्य का राजतिलक चाहते थे तो अजित पवार चाचा शरद पवार की गद्दी पर खुद बैठना चाहते थे। पारिवारिक अंतर्कलह अंतत: उसूलों को तिलांजलि और राजनीतिक दबंगई में बदल गई। हर अनैतिकता को नैतिकता का हेलमेट पहनाने की कोशिश हुई। अलबत्ता महाराष्ट्र में चाचा जितने पावर फुल साबित हुए, उतने यूपी में चाचा शिवपालसिंह साबित नहीं हो सके। उन्हें भतीजे अखिलेश ने ठिकाने लगा दिया तो महाराष्ट्र में चाचा शरद पवार ने भतीजे अजित को उसकी औकात दिखा दी।
बहरहाल वीरो, कलाकारों, समाज सुधारकों, विचारकों, लेझिम और लावणी के प्रदेश महाराष्ट्र ने एक माह मंस सत्ता लोलुपता का जो ड्रामा देखा, संविधान के नाम पर उसी की छीछालेदर देखी, लोकतंत्र की साख को सुप्रीम कोर्ट द्वारा बचा? *रामखिलाड़ी शर्मा जर्नलिस्ट*  updated by gaurav gupta 

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