मनु सिंहल, राजनीति संपादक, अनुभवीआँखें न्यूज।

प्रशान्त किशोर का जेडीयू में महा-आगमन इस बार कई तरह के प्रश्नों के साथ आया है। उनके आने से पार्टी में जो स्वाभाविक असंतोष है, वह तो अपनी जगह है ही, किन्तु मुझे इस बार उनकी रणनीति भी बहुछिद्री दिखाई दे रही है। कहीं उनका अघोषित और अचिंतित उद्देश्य यह तो नहीं कि सम्मानजनक समझौते के नाम पर असम्मानजनक बिलगाव हो जाए? कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल के प्रति उनका विशेष अनुराग उन्हें बार-बार झकझोरता होगा कि काश… जदयू, राजद और कांग्रेस की त्रिवेणी, विजयश्री का प्रयागराज बन जाए और इसके बाद वे विलक्षण और सर्वकालिक रणनीतिकार के रूप में सदा-सर्वदा के लिए स्थापित हो जाएं?

पी के एक स्थापित राजनीतिक व्यक्तित्व नहीं हैं और उनकी आस्था हवा के रुख की तरह परिवर्तनशील हो सकती है और ऐसा करने में उन्हें कोई दोषदर्शन भी नहीं होगा। यदि भाजपा उनकी हठधर्मी नीति के आगे विवश होकर 50% सीटें दे भी देती है तो क्या आगामी चुनावों में यह ज़िद उसके कैडर को प्रतिकूल रूप से प्रभावित नहीं करेगी? कहीं पी के की कांग्रेसी सहानुभूति, चुनावों में जदयू को भारी तो नहीं पड़ने वाली? पी के के रहने तक, जदयू के कांग्रेसनीत सरकार के हिस्सा बनने की सम्भावना का द्वार बन्द नहीं होगा और तब तक भाजपा के कार्यकर्ताओं के हृदय का द्वार जदयू के लिए पूरी तरह खुलेगा भी नहीं।

सम्भव है कि मेरा यह कयास निर्मूल ही हो,किन्तु राजनीति की विश्रृंखलित हवाएं पता नहीं कब किधर बह जाएं?

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