मनु सिंहल,राजनीति संपादक, अनुभवी आँखे न्यूज़ , अपनी पिछले रिपोर्ट में मैंने लिखा था कि पी.के. का दबाव 50-50 प्रतिशत सीटों के लिए भाजपा नेतृत्व को झुका सकता है, जबकि बिहार में भाजपाई कैडर न तो इस बात

के लिए तैयार था, न है, न ही होगा। इस दबाव का प्रभाव आने वाले समय में भाजपा-संघ के कार्यकर्ताओं के मनोबल पर पड़ना उतना ही स्वाभाविक है, जितना जदयू-कुल का अति-उत्साहित होना। तथापि मेरा स्पष्ट मानना है कि सीट-विभाजन, जदयू के पक्ष में होने के बावज़ूद, भाजपा की सीटें आगामी लोकसभा के चुनावों में जदयू से एक-दो अवश्य ही अधिक होने जा रही हैं। इसके लिए अन्य उत्तरदायी कारणों की चर्चा कभी बाद में करेंगे।

लोजपा सूत्रों की मानें तो कल संध्या की घोषणा के बाद भी अंततः उनकी सीटों की संख्या नहीं घटने जा रही। कुशवाहा, महागठबंधन से, एनडीए से प्रस्तवित सीटों की तुलना में दुगुनी से अधिक सीटें चाह रहे हैं, जो बदली परिस्थितियों में बिल्कुल सम्भव नहीं दिखता। पिछले दिनों बिहार की राजनीति में तेजस्वी की लोकप्रियता एवं परिपक्वता बढ़ी है, और वे वर्तमान की कुशवाहा की पार्टी के प्रभाव से अवगत भी हैं, अतः आज अगर सबसे अधिक असमंजस कहीं व्याप्त है तो वह कुशवाहा के दल में ही है। कुशवाहा के पाला बदलने के ‘संभावना-द्वार’ पर ‘विलम्ब’ का एक छोटा सा कमज़ोर ताला लटकता दिख रहा है।

विश्वास किया जा रहा है कि भाजपा और जदयू के मध्य 50-50 का सूत्र, विधानसभा चुनावों के लिए भी निश्चित हुआ है। केवल एक शर्त है कि जदयू की सीटें कम होने पर भी राज्य के मुखिया नीतीश कुमार ही रहेंगे। हाँ, यदि नीतीश, केन्द्र में किसी प्रतिष्ठित पद के लिए तैयार हो जाते हैं तो फिर भाजपा के सबसे बड़े दल के रूप में उभरने पर, भाजपानीत सरकार ही बनेगी और किसी भी स्थिति में जदयू की अगली पंक्ति को यह अवसर नहीं मिलने जा रहा।

कुल मिलाकर आने वाले दिनों में बिहारी राजनीति के पन्ने, परिस्थितियों की आँधी में खूब फड़फड़ाने जा रहे हैं और पी.के. के बैरोमीटर का अच्छा टेस्ट इस बार होने जा रहा है।

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